Thursday, June 04, 2020

मुस्कुराहटो के कर्ज

वो हँसी बहुत 
कुछ कहती थी
फिर भी अपने में 
ही  रहती थी
बाँध कर हिचकी
 सावंले गालों पर
खींची काजल की 
गीली लकीरें थी
कहने को बहुत कुछ
 पर  खामोशी  थी
जिसमें मुस्कुराहटो के
 कर्ज ही बाकी थे
आजाद तुम 
     ना 
आजाद मैं 
ख्यालों से 
रात सारी थी 
परेशां रात सारी थी ।।

डॉ प्रियदर्शिनी अग्निहोत्री

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