प्रेम में कभी विवशताओंको
महसूस करके देखा
बरसों गुजर गए
रोकर नहीं देखा
आँखों में नींद
मगर सोकर नहीं देखा
सूरज भी अब नहीं फुसफुसाता
न ही धूप ही बतियाती
बरगद की घनी छाँव
खामोशियों को बेहतर कहती
झींगुरों के साथ गुनगुनाती रात
मुझसे ना कह कर भी कहती
खामोश आसमां में डुबकियाँ लगा
हैरानियाँ लौट आएंगी
लेकिन मेरा आकाश
कभीसिरहाने कहाँ बैठा।।
डॉ प्रियदर्शिनी अग्निहोत्री
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