नारी तुम केवल श्रध्दा हो.......
संकल्प अश्रु जल से
तुम दान पहले
ही कर चुकी
सर पर पल्ला लिए
लज्जा के घूंघट में
घुटन अपनी छुपाती
सुख मुक्ता युक्त हूँ
दुख तिरस्कृत वयक्ता हूँ
यातनाएं वेदनाएं पीड़ा
कितनी ना कोई छोर
नयनो में अर्ध्य लिए
निराश्रित ही चलती
स्वीकार है मुझे
मैं अंग मैं देह हूँ
इससे परे और भी
कुछ हूँ मैं
देह के अंदर भी
झांकने का
प्रयास तो करो
अंग के सिवा भी
कुछ मागंने का
प्रयास तो करो
मैं अहिल्या मैं सीता
मैं वीणा भी बनी
मैं निर्भया भी बनी
राम के यज्ञ की आहुति
सत्य की दीपिका बन
राजधानियों में भी लुटी
मृत्यु से पहले ही
ना जाने कितनी बार मरी
नए युग में नयी चेतना के
अनगिनत सम्भावनाए लिए
मौन फिर भी खड़ी हूँ
क्योंकि
नारी तुम केवल श्रध्दा हो।।
डाॅ प्रियदर्शिनी अग्निहोत्री
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