दीपावली की काली अमावस की रात में नन्हा-सा दिया बहुत प्रकाश देता है। चारों ओर तिमिर का साम्राज्य है,पर उसके सामने नन्हा-सा दिया साहस से खड़ा हो स्वयं जलकर अंधकार मिटाता है। इस प्रकाश की दिव्यता की अपनी एक आभा होती हैं। नन्हे से दिये का भी अपना संघर्ष है। मिट्टी दिये का आकार लेती हैं ..........मिट्टी को चुन कर खेतों से लाया जाता है, बारीक छन्नी से छाना जाता है .......पानी में भिगोया जाता है .....लातो से कुचला जाता है .रौंदा जाता है...पीटा जाता है तब कहीं जाकर वह कुम्हार के चाक पर चढ़ने लायक बनती है और फिर कुम्हार के सुघड,कुशल और अनुभवी हाथों से दिये के आकार में ढलती है ......और भट्टी की आंच में पक कर मजबूत बनती और निखरती .......तब जाकर खेतों की मिट्टी को दिये के रूप मे देवी देवताओं के समक्ष मनुष्य की प्रार्थना के रूप में प्रज्वलित होने का सौभाग्य प्राप्त होता हैं। खेत से देवी देवताओं के समक्ष आने तक़ दिये का संघर्ष चुनौतियों भरा होता हैं। कह सकतीं हूँ की कतार से जलते दिये दरअसल हमारे दैनिक जीवन के अलग-अलग संघर्षों के प्रतीक होते हैं.......संघर्षों के बिना मानव जीवन नहीं, चुनौतियों के बिना संघर्ष नहीं, चुनौतियों को स्वीकार किए बिना चुनौतियों की समझ नहीं .....चुनौतियों की समझ के बिना उनका समाधान सम्भव नहीं ......और चुनौतियों का समाधान खोजने के प्रयास के प्रयास के बिना मानव जीवन की सार्थकता नहीं , परिपक्वता नहीं,सफलता नहीं।
तो कह सकती हूँ कि.......पंक्ति में जलते दिये एक औसत मनुष्य की रोजाना की जिंदगी के युद्धों के सच्चे प्रतीक हैं .........ईश्वर जैसी कोई संस्था या व्यक्ति यदि मौजूद है तो निःसंदेह वो मनुष्य के इस सहज सुलभ उपक्रम पर जरूर मुस्कुराता होगा और जब एक दिया हवा और अंधेरे से लड़ता हुआ अपनी लौ को बचाता होगा तब तब ईश्वर का मन करता होगा कि वो लडखडाते हुए मनुष्य का हाथ चूम ले।
" आप्पो दीप्पो भव: ""
डॉ प्रियदर्शिनी अग्निहोत्री
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