कितना सहज सरल होता है
किसी और के मन को समझाना
कितना करूण कठिन होता है
बीती बातें मन की भुलाना
सूनेपन में मैं पलती हूँ
दिशा दिशा से मौन उमड़ कर
तृण तृण पर छाया करता है
फिर भी मन की कुटिया में
अनुराग दीप जलाती हूँ
मेरे मन के दीप जले
जल जल कर पागल अलसाये
इन दीपो की छाया में
शायद कोई तो अब मुस्काए।।
डॉ प्रियदर्शिनी अग्निहोत्री
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