मन
मन सुबह चलें
मन शाम चले
न जाने किस डगर
न जाने किस गांव चले
मन की अनसुनी पीड़ा
मन खुद ही भोगे
मन के अनगिनत बोझ
मन खुद ही ढोए
मन का सुख से मेल नहीं
मन की दुख से यारी है
मन कब किसकी सुनता है
मन तो मन की करता है
मन से मन की बात हुई मनमानी
मन चुप्पी साधे देख रहा
मन की सीमा अजानी
मन ही बना मन का प्रहरी
मन ने मर्यादा न लांघी
मन से थका मन
आज बसेरा चाहता
मन , मन की हार को भी
आज बनाता जीत का आधार।
डॉ प्रियदर्शिनी अग्निहोत्री
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