आज हताशाओं की राहो पर
जीवन हारा देख रही हूँ
देखती थी जिस तरफ
छाया था अवसाद घना
वेदना के काले बादल घिरे
आहों के अश्रु नैनों से छलके
धैर्य साहस जा रहे थे
छोड़ मंन का साथ
परछाई भी छलती रही
दिन के उजालों मे
भ्रम का चक्रवूह बुनती रही
रात के अंधेरों मे
विलुप्त मेरी आशा थी
बसी मंन मे निराशा थी
भ्रम शंका की लहरों पर
जीवन नैया डोलती थी
टूटती पतवार मेरे विशवास की
भाग्य भी मुझको छल गया
घाव भरता है समय पर
वो समय भी पर टल गया
हताशाओं की पीड़ा
कभी भुला ना सकूंगी
असफलताओ के अभिश्राप
कभी मिटा ना सकूंगी
सफलताओं के गीत शायद
कभी ना गुनगुना सकूंगी
कभी ना गुनगुना सकूंगी॥
डॉ प्रियदर्शिनी अग्निहोत्री
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