नूतन प्रश्न उठाती हूँ ......
चाहे जितना भी रौदों
धरती सब कुछ सहती
तट को आश्रय नदी देती
किनारे फिर भी प्यासे
मेघ झूम कर बरसते
फिर भी प्यासा खारा पानी
ना सूरज आग से जलता
मिटकर बीज ना रोता
तरू बन जीवन देता
प्यासा धरती सीचां करता
ना आंसू मोल बिकते है
और कांटो में भी
गुलाब बेझिझक खिलते है ।।
डा प्रियदर्शिनी अग्निहोत्री
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