मेरे शब्दों के अर्थ अनेकों है
जो समझो जो चाहो लगा लेना
मैं शब्दों के मोती बिखराती हूँ
तुम स्नेह धागों में पिरो लेना
तो सुनो कुछ आज जो मन में है
सुनाती हूँ
साँसों के सजल दीप जलाए मौन हूँ
तुम्हारी प्रतीक्षा में आँखें बिछाएं मौन हूँ
इन पलकों की मौन छाँव में
स्मृतियों की तुम्हारी स्वर्णिम छाया
मृग तृष्णा सी पगली भटक रही है
किन्तु साधना में सिद्धी है
आज भी विश्वास मेरा
नयनों के सागर में दिखेगा
तुम्हें मौन हो आकाश मेरा
और पतझड़ भी झूम कर कहेगा
आ रहा देखो मधुमास तेरा
मत नयन खोलो प्रिया अभी
ध्यान बनकर मैं तो चढता ही रहूंगा
एक आस का दीप लिए मैं
शायद जीवन सारा देख रहीं हूँ
तो तुम जो वचन हरो तो मैं
सौ सौ जन्म प्रतीक्षा कर लूँ।।
डॉ प्रियदर्शिनी अग्निहोत्री
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