Sunday, September 19, 2021

अमृत महोत्सव और हमारी राष्ट्र भाषा

         हमारा गौरव राष्ट्र भाषा हिन्दी
15अगस्त, 2022 को देश की आजादी के 75 वर्ष  पूरे होने जा रहें हैं ।इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए हमारे प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी ने 12 मार्च 2021 को अहमदाबाद के साबरमती आश्रम मे आजादी के 'अमृत महोत्सव ' का उद्घाटन किया। अमृत महोत्सव मनाने के मूल मे यह परिकल्पना है कि   जनभागीदारी की भावना के साथ जनउत्सव के रूप मे मनाया जाएगा। अतः विचारणीय है की जनउत्सव भारतीय भाषाओ के बिना नही मनाए जा सकते। भारतवर्ष एक है और देश मे भाषाएँ चाहे जितनी भी हो लेकिन सबके भीतर भारत की एक ही आत्मा अपने को अभिव्यक्त करती है।वेद, उपनिषद, रामायण  और महाभारत ये ही वे घाट है जहाँ पर हमारी सभी भाषाएँ पानी पीती है। किसी भी देश का सांस्कृतिक विनाश तब निश्चित हो जाता है जब वे अपनी परम्पराओ को भूल कर दूसरो की परम्पराओ को अपनाते है ।इससे भी भयानक दुष्परिणाम तब होता है जब कोई संस्कृति अपनी भाषाओ को छोड़कर दूसरे की भाषा को अपना लेती है और उस भाषा मे हकलाने तुतलाने मे ही गौरवान्वित होने लगती है। वह ना अपनी भाषा मे सोचती है,ना ही अपना साहित्य सृजन करती है और ना ही दैनिक जीवन मे अपनी भाषाओ का उपयोग करती है।भाषाओ को लेकर देश मे वर्तमान परिदृश्य कुछ इसी प्रकार का दिख रहा है।दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक राष्ट्र के तौर पर ये हमारा दुर्भाग्य ही है कि हम उस देश मे रहते हैं जहाँ हिन्दी सुनने के लिए २ दबाना पडता है। हमारे देश के पास राष्ट्रीय ध्वज है,राष्ट्रीय पक्षी है ,राष्ट्रीय पशु है परंतु राष्ट्रीय भाषा नही है मुझे लगता है अमृत महोत्सव सबसे उचित अवसर है जब हम 'हमारा गौरव राष्ट्र भाषा हिन्दी 'पर विचार करें और राष्ट्र की आत्मा के रूप मे आत्मसात करें।
पिछले कुछ दिनों से राष्ट्र भाषा हिन्दी की राजकीय कामकाज़ मे उपयोगिता पर मतभेद बने हुए हैं,जोकि दुर्भाग्यपूर्ण और निर्रथक है। हर देश की एक सर्वस्वीकार्य राजकीय भाषा होती है। अगर भाषाई दृष्टि से पूरे विश्व का अवलोकन करे तो भारत सर्वाधिक भाषाई विविधता को अपनी सांस्कृतिक विरासत के रूप मे सहेजे हुए है। पीपुल्स लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया के अनुसार देश मे लगभग 780 भाषाएँ और 66 लिपि हैं। यह बात मुझे गौरान्वित और हर्ष प्रदान करती है की यह हमारा ही देश है जिसमे साहित्य की समृद्ध परम्पराए हैं ,और वो भी जीवंतता और विविधता से भरपूर हैं। राष्ट्र भाषा किसी भी राष्ट्र के लिए उतनी ही जरूरी है जितनी शरीर के लिएआत्मा और आत्मा ही  किसी समुदाय मे राष्ट्र प्रेम की भावना जगाती है। किसी भी भाषा को समृद्धि तभी प्राप्त होती है जब उस भाषा के द्वारा उत्कृष्ट साहित्य का निर्माण हो। भाषा लौकिक व्यवहार को सम्पन्न करने के साथ ही साहित्य ,ज्ञान ,विज्ञान ,कला ,संस्कृति सभी क्षेत्रों मे मानव की समस्त उपलब्धियों को आधार प्रदान करती है।भाषा ,धर्म ,संस्कृति और राष्टीयता यह चार कारक मनुष्य जाति   की एकता  और अलगाव को प्रभावित  करते हैं। सामान्यतः भाषा को धर्म  से जोड़  कर देखते हैं ,जो कि सही नहीं है। अगर  हम धर्म के अनुसार भाषा का विश्लेषण करें तो संस्कृत को हिन्दु धर्म की भाषा माना जाता है ,तो इसके अनुसार १%व्यक्ति भी हिन्दु कहलाने के अधिकारी नहीं हो सकते   क्योंकि उनका परिचय संस्कृत से नहीं हैं और तो और अपने वेदों मे रचे अपार ज्ञान से भी अपरिचित हैं। मुसलमानों की विशाल आबादी  अरबी से,ईसाई हिब्रू से,  बौद्ध  धर्म के अनुयायी त्रिपिटिक भाषा से अपरिचित हैं। भाषा को धर्म से कभी भी नहीं जोड़ा जा सकता है। यह तथ्य सर्वविदित है कि पाकिस्तान ,इजराइल का निर्माण  धर्म से प्रेरित  है ना कि भाषा से। इतिहास साक्षी है कि उर्दू के अनेक प्रसिद्ध साहित्यकार ,लेखक  ,कवि हिन्दु थे तथा हिंदी भाषा मे जायसी ,रहीम ,रसखान के योगदान अविस्मरणीय  हैं। इसी प्रकार  धर्म परिवर्तन से भाषा परिवर्तन के सम्बन्ध को नहीं जोड़ा जा सकता ,क्योंकि धर्म परिवर्तन से किसी की आध्यात्मिक निष्ठा परिवर्तित होती है ना कि भाषा। संस्कृति को भाषा से जोड़ा जाना भी तर्क संगत नहीं है क्योंकि विश्व मे विकसित जितनी भी संस्कृतियाँ हैं वो क्षेत्र विशेष मे विकसित पारंपरिक रीतियों ,आस्थाओं और आचार विचार से बंधी हुई हैऔर इसी आधार पर हमारी संस्कृति भारतीय है। हमारे देश मे सांस्कृतिक और साहित्यिक दृष्टि से दर्शन ,धर्म ,कला मे एकता के दर्शन हैं चाहें इसे वयक्त करने वाली भाषाएँ विविधता लिए हुए हैं। 

 अँग्रेजी भाषा के चलते हमारी राष्ट्र भाषा की  दुर्गति की शुरुआत तो काफी  पहले ही हो गई थी। कितनी शर्मनाक बात है कि हमने आज़ादी की लड़ाई  भारतीय भाषाओं मे लड़ी और देश के प्रथम प्रधानमंत्री  का प्रथम भाषण अंग्रेजी मे सुना। यह हिन्दी की दुर्दशा की शुरुआत थी। १९ वीं सदी मे भारत का स्वरूप एक भाषा के आधार पर सोचा गया। जिसके  परिणामस्वरुप हमारे कई राज्य अस्तित्व मे आए। देश मे भाषा की राजकीय स्थिति चार प्रकार की रही हैं। प्रादेशिक , अन्तःप्रदेशिक ,राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय। भाषा के आधार पर राज्यों के निर्माण के बाद प्रत्येक राज्य के लिए एक -एक भाषा स्वीकृत हुई जिसे हम प्रादेशिकभाषा या राज्य भाषा का दर्जा दे सकते हैं। दूसरी स्थिति में हमारा देश राज्यो का संघ हैं अतः अन्तःप्रादेशिक सचांर और सम्प्रेषण के लिए हिंदी आवश्यक है, और तीसरी स्थिति के अन्तर्गत जहाँ हम विवाद को देखते हैं कि केंद्र और राज्यो के बीच संचार की भाषा क्या हो। इसे दुर्भाग्यपूर्ण ही कहूँगी कि यहाँ संचार का माध्यम अभी तक अग्रेजी भाषा ही रही है। यहाँ यह स्पष्ट कर दूँ कि हिन्दी केवल केन्द्र और राज्यो में सम्पर्क भाषा के रूप में स्वीकृत हुई है न कि किसी प्रादेशिक भाषा को  प्रतिस्थापित करने या उसके क्षैत्र में दखल देने के लिए नहीं। चौथी स्थिति अन्तर्राष्टीय हैं जहाँ विश्व के विकसित देश रूस, चीन, जापान ,फ्रांस  अपनी भाषा के माध्यम से प्रगति और कार्य कर रहे हैं वहाँ हमारा देश जिसकी स्वयं की भाषा इतनी समृद्ध है वो अंग्रेजी का उपयोग कर यह बताने में शायद गर्व महसूस करता है कि हम 200 वर्षों तक पराधीन रहे हैं। आज हम भले ही 74 वीं आजादी की वर्षगांठ मनाते हुए गौरवान्वित महसूस करें किंतु आज भी उच्च शिक्षा के क्षेत्र चाहे वो तकनीक, विज्ञान, चिकित्सा, इंजिनियरिंग के क्षेत्र में शिक्षा हिंदी में हमारी युवा  पीढ़ी को उपलब्ध ही नहीं है। जबकि विश्व के विकसित और अल्प विकसित देशों ने भी अपनी शिक्षा का   माध्यम अपनी भाषा को बनाया है ना कि विदेशी भाषा को। यह तथ्य भी आश्चर्य जनक है कि हमारी न्याय पालिका आज भी अपने फैसले हिंदी में नहीं देती हैं। वर्तमान अर्तराष्टीय परिदृश्य को देखें तो भारत एक उभरती हुई वैश्विक आर्थिक शक्ति का प्रदर्शन कर रहा  है। अपने अंतर्राष्ट्रीय संबंधो और व्यापारिक समझौते के लिए भारत में अंग्रेजी का बना रहना उसी    व्यापारिक भावना का अनिवार्य पक्ष हैं। किंतु इस पक्ष के साथ देश भारी कीमत चुका रहा है क्योंकि   सांस्कृतिक स्तर पर अपनी भाषाओं को नकार रहा है। मेरा मानना है कि हमें भी किसी विदेशी भाषा के   साथ वही व्यवहार करना चाहिए जो दुनिया के दूसरे विकसित देशों ने किया। अर्थात अपनी भाषा को     संरक्षण दे हम विकास करे। क्योंकि प्रगति और विकास के लिए अग्रेजी की अनिवार्यता कहीं भी नहीं है। मैं अंग्रेजी या किसी भी विदेशी भाषा की विरोधी नहीं हूँ। किन्तु जो प्रबुध्द वर्ग यह मानता है कि अंग्रेजी   भाषा की खिड़की खोले बिना ज्ञान, विज्ञान और विकास का प्रकाश अन्दर नहीं आ सकता तो इन्हें इस       बात को भी मानना होगा कि प्रकाश के साथ धूल भी प्रविष्ट हो सकती है और विकास की सुगंध के साथ   दुर्गंध की सम्भावना भी होती है। इस पर व्यापक रूप से विचार किया जाना चाहिए। वर्तमान परिदृश्य में राष्ट्रीयता राजनैतिक सत्ता से निर्मित और नियन्त्रत होती है। देश मे लगभग 50 रोड़ लोग गैर हिंदी भाषी हैं किन्तु फिर भी सत्ता और सर्वोच्च कुर्सी का मार्ग हिंदी भाषी पट्टी से ही रास्ता बनाता है। क्योंकि 10 हिंदी भाषी राज्यों में लोकसभा की 221 सीटें हैं। पिछले 74 वर्षों में 15 राजनेता प्रधानमन्त्री बने किन्तु एच डी दैवी गौड़ा को छोड़कर ज्यादातर हिन्दी पट्टी से ही चुनें गए। चाहे   वो गांधी नेहरु परिवार हो, शास्त्री जी या अटल बिहारी वाजपेयी और हमारे वर्तमान प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र  मोदी। इस परिदृश्य के बाद भी हिन्दी के प्रसार का इतिहास सन्घर्ष और विरोधों का इतिहास है। विश्व में  शायद ही किसी मातृभाषा या राष्ट्र भाषा के प्रचार प्रसार में इतनी मुश्किलो या बाधाओं का सामना करना  पड़ा हो जितना हिन्दी को। किन्तु हिन्दी समृद्ध भाषा है इसलिए इन सब बाधाओं पर विजय प्राप्त की है  वर्तमान में आज जहाँ हिन्दी है वह किसी की कृपा या अनुकम्पा के कारण नहीं बल्कि अपनी उपयोगिता और सर्वगाहृयता के कारण। अतः जहाँ तक संभव हो हिन्दी भाषा में सब विषयों का अध्ययन करें। अपनी भाषा को गौरव से आत्मसात कीजिए। अपने दैनिक व्यवहार, बोलचाल, व्याखान, पत्रव्यवहार हिन्दी में कीजिए, पुस्तके,  कविताएँ हिन्दी में ही लिखिए। भाषा अपनी राष्ट्रीयता की सबसे बड़ी निधि तथा प्राण हैं। अतः राष्ट्र भाषा के संरक्षण का काम अगर देश की संसद से शुरू होता है तो इसे मैं सकारात्मक परिणाम के रूप में देखूंगी। क्योंकि अब समय यह कहता है कि बदलाव की जरूरत और शुरूआत निचले स्तर से न  हो कर ऊपर से ही होनी चाहिए। तभी राष्ट्र भाषा के अच्छे दिन आएगें।       
डॉ  प्रियदर्शिनी अग्निहोत्री
(प्रांत संयोजक भारतीय भाषा मंच इन्दौर शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास नई दिल्ली)

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