वनों की अंधाधुंध कटाई के कारण मुख्य रूप से हिमालय के पर्वतीय तथा पहाड़ी भागों में वनों का भारी विनाश होने के साथ ही मिट्टी का अपरदन, अनियमित वर्षा तथा बाढ़ों की पुनरावृत्ति जैसे दुष्परिणाम प्रकट हो रहे हैं। मृदा अपरदन तथा विनाश के कारण वनों की उत्पादकता घटती जा रही है। इसके निराकरण के लिए वन संरक्षण अधिनियम (1980)का संशोधन 1988 में किया गया जिसके अन्तर्गत विवेकपूर्ण वन विनाश तथा वन्य भूमि को गैर वानिकी कार्यों में प्रयुक्त करने पर नियंत्रण लगाने के लिए कठोर दण्ड का प्रावधान किया गया। देश में तेजी से वनों के क्षेत्र में कमी अत्यधिक शोचनीय है। जनसंख्या व पशुओं की संख्या में वृद्धि के कारण वनों पर दबाव बढ़ता जा रहा है। वनों की निरन्तर कटाई से सम्पूर्ण देश एक गहरे पारिस्थितिकी एवं सामाजिक आर्थिक संकट के कगार पर खड़ा है। अत: भारत में वनों के प्रभावकारी संरक्षण के लिए निम्नलिखित ठोस उपाय प्रस्तावित किये गये हैं
(1) परती भूमि का वन रोपण एवं विकास,
(2) मौजूदा वनों में पुनः वनरोपण (Deforestation) तथा पुनः पौधे लगाना (Replantation),
3)वन सर्वेक्षण को सुदृढ़ करना,
4) वन क्षेत्र को निश्चित करना,
5) वन अधिकारियों द्वारा व्यवस्थित खोजबीन करना, (6) वन सुरक्षा दल को मजबूत व सुदृढ़ बनाना, (7) पशुचारण पर प्रतिबंध, (8) ईंधन की लकड़ी, चारा व इमारती लकड़ी की आपूर्ति के लिए डिपो बनाना, (9) सुधरे हुए उन्नत चूल्हे, (10) अन्य किस्म के ईंधन की आपूर्ति, (11) इमारती लकड़ी के परिवहन पर कठोर प्रतिबंध, (12) चिराई खानों पर कठोर प्रतिबंध, (13) एकल धान्य कृषि पर रोक तथा (14) आदिवासियों के अधिकार निर्धारण व उनकी आवश्यकता की पूर्ति करना था (15) प्राकृतिक तथा मानव-कृत वनाग्नि पर नियंत्रण के उपाय।
3)वन सर्वेक्षण को सुदृढ़ करना,
4) वन क्षेत्र को निश्चित करना,
5) वन अधिकारियों द्वारा व्यवस्थित खोजबीन करना, (6) वन सुरक्षा दल को मजबूत व सुदृढ़ बनाना, (7) पशुचारण पर प्रतिबंध, (8) ईंधन की लकड़ी, चारा व इमारती लकड़ी की आपूर्ति के लिए डिपो बनाना, (9) सुधरे हुए उन्नत चूल्हे, (10) अन्य किस्म के ईंधन की आपूर्ति, (11) इमारती लकड़ी के परिवहन पर कठोर प्रतिबंध, (12) चिराई खानों पर कठोर प्रतिबंध, (13) एकल धान्य कृषि पर रोक तथा (14) आदिवासियों के अधिकार निर्धारण व उनकी आवश्यकता की पूर्ति करना था (15) प्राकृतिक तथा मानव-कृत वनाग्नि पर नियंत्रण के उपाय।
भारतीय वन सर्वेक्षण विभाग (Forestry Survey of India) :वन संसाधनों के आंकलन तथा विकास के लिए नवगठित भारतीय वन सर्वेक्षण विभाग (Forest Survey of India) 1981 में देहरादून में स्थापित किया गया। यह विभाग निम्नलिखित कार्यों में संलग्न है- (i) वनों का मानचित्र (Mapping), (ii) वन तालिका (Inventory), (iii) आँकड़े तैयार करना एवं (iv) वन सम्बन्धी शिक्षा एवं प्रशिक्षण। अन्य प्राकृतिक संसाधनों की भांति वन संसाधनों के आंकलन एवं निरीक्षण के लिए भी वायु एवं उपग्रह (Satellite) पर आधारित दूरस्थ संवेदन (Remote sensing) पद्धति को अपनाने के प्रयास किए जा रहे हैं।
वानिकी अनुसंधान (Forestry Research) : भारतीय वानिकी अनुसंधान एवं शिक्षा समिति वन सम्बन्धी अनुसंधान, वन वर्धन तथा वन उत्पाद के क्षेत्र में सक्रिय है। देश के विभिन्न पारिस्थितिक भौगोलिक प्रदेशों में 6 अनुसंधान संस्थान स्थापित किए गए हैं :(1) वानिकी अनुसंधान
संस्थान, देहरादून; (2) शुष्क क्षेत्रीय वानिकी अनुसंधान संस्थान, जोधपुर; (3) पर्णपाती वन संस्थान, जबलपुर; (4) काष्ठ विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी संस्थान, बंगलौर; (5) वर्षा एवं आर्द्रकेत्रीय सदाबहार वन संस्थान, जोरहाट; (6) वृक्ष प्रजनन एवं आनुवंशिक संस्थान, कोयम्बटूर। सामाजिक वानिकी (Social Forestry) : सामाजिक वानिकी वन विभाग तथा समाज का ऐसा समन्वय है जो रक्षित वनों पर समाज के भार को कम करता है, वन वर्धन की प्रक्रिया को तीव्र करता है तथा मानव-शक्ति को वन उत्पादन की ओर अग्रसर करता इस प्रकार सामाजिक वानिकी देश के आर्थिक विकास के साथ विकास के साथ ही पर्यावरण असंतुलन दूर करने का उत्तम साधन है सामाजिक की वाणी की संकल्पना मुख्यता ग्रामीण समाज की आधारभूत आवश्यकताओं की शीघ्र पूर्ति करना है सामाजिक वानिकी
परियोजना का मुख्य उद्देश्य गाँव के समीप उपलब्ध बंजर भूमि तथा सड़कों, नहरों व रेलमार्गों के सहारे खाली पड़ी बेकार भूमि में उपयोगी वृक्षों को रोपण करना है जिसमें गांव वासियों को ईंधन, चारा, घरों की मरम्मत के लिए लकड़ी, छप्पर, घास आदि कुटीर उद्योगों के लिए कच्चा माल निरन्तर प्राप्त हो सके। कृषि वानिकी (Agro-Forestry) : कृषि तथा वन हमारी कृषि अर्थव्यवस्था के अविच्छिन्न अंग है। वास्तव में वन एक फसल की भांति है तथा संसाधन के रूप में अनेक प्रकार की उपजों का स्रोत है। कृषि वानिकी अन्य फसलों तथा कृषि फसलों का संयोग है। कृषि फसलों का प्रमुख उद्देश्य मनुष्य के लिए खाद्यान्न तथा पशुओं के लिए चारे की व्यवस्था करना है तथा वन्य फसलों का प्राथमिक उद्देश्य लकड़ी, ऊर्जा, घास, चारा, रेशा आदि उपलब्ध कराना है। कृषि वानिकी एक ऐसी प्राविधिकी है जिससे भोजन, ईंधन, चारा आदि दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति के साथ वन संरक्षण तथा पर्यावरण सन्तुलन भी संभव है। इसकी तुलना बहुफसली कृषि पद्धति से भी की जा सकती है। कृषि वानिकी प्राविधिकी की निम्नलिखित पद्धतियाँ हैं :
(1) कृषि युक्त वन पद्धति, (2) वन चारागाह पद्धति, (3) कृषि चारागाह पद्धति, (4) बहुउद्देशीय वृक्ष उत्पादन पद्धति।
वन संसाधन संरक्षण आवश्यक (Necessity of Forest Resources Conservation) पिछली कुछ शताब्दियों से मानव द्वारा वनों की कटाई अधिक मात्रा में होती रही है। जनसंख्या में वृद्धि के साथ-साथ वनों को काटकर कृषि के लिए भूमि साफ की जा रही है। मकान बनाने के लिए, पुलों और नावों के लिए, घरेलू और कारखानों के ईंधन के लिए पशुपालन के लिए तथा औद्योगिक निर्माण के लिए प्रत्येक देश में वन काटे जाते हैं। वनों की अत्यधिक कटाई (Deforestation) की चार मुख्य हानियाँ संसार (भारत) की मानव जाति को कष्ट पहुँचा रही हैं :
(1) वनों के अधिक कटने से भूस्खलन (Land Sliding) और भूमि कटाव तथा मृदा अपरदन (Soil Erosion) हो रहा है। इससे मानव विकास की भूमि कम होती जा रही है, कृषि करने की भूमि कम होती जा रही है। कृषि के उत्पाद के लिए मिट्टियों की उर्वर शक्ति घटती जा रही है। (2) बाढ़ों का प्रकोप बढ़ता जा रहा है। इससे जन-धन का ह्रास बढ़ रहा है। मानवीय बस्तियों के बढ़ने के साथ पशुधन और मनुष्यों की भी क्षति हो रही है। (3) जो लकड़ी निर्माण उद्योगों में कागज की लुग्दी, नकली रेशम, प्लास्टिक आदि के लिए कच्चे मालों (Raw Materials) की तरह प्रयुक्त होती है, वह दिनों दिन कम होती जा रही है। वनों से प्राप्त होने वाले अन्य कच्चे मालों में भी दिनों-दिन कमी होती जा रही है, जबकि कच्चे मालों की आवश्यकता प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। (4) जनों द्वारा पृथ्वी की जलवायु स्वास्थ्यवर्धक रहती है।वनों के अधिककाटने से मानवीय स्वास्थ्य के लिए उपयुक्त जलवायु नहीं मिलेगी। महामारी जैसे रोग बढ़ेंगे और मानवीय स्वास्थ्य खराब होता जाएगा। अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं ने मानवीय जगत, जन्तु जगत और वनस्पति जगत के इस सहजीवी असन्तुलन (Symbiotic Ecologic Imbalance) का नष्ट होता हुआ देखकर अब इन जीवधारी संसाधनों (Living Resources) के समुचित विकास, सन्तुलन और संरक्षण (Conservation) पर बल देना आरंभ कर दिया है। वन
संस्थान, देहरादून; (2) शुष्क क्षेत्रीय वानिकी अनुसंधान संस्थान, जोधपुर; (3) पर्णपाती वन संस्थान, जबलपुर; (4) काष्ठ विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी संस्थान, बंगलौर; (5) वर्षा एवं आर्द्रकेत्रीय सदाबहार वन संस्थान, जोरहाट; (6) वृक्ष प्रजनन एवं आनुवंशिक संस्थान, कोयम्बटूर। सामाजिक वानिकी (Social Forestry) : सामाजिक वानिकी वन विभाग तथा समाज का ऐसा समन्वय है जो रक्षित वनों पर समाज के भार को कम करता है, वन वर्धन की प्रक्रिया को तीव्र करता है तथा मानव-शक्ति को वन उत्पादन की ओर अग्रसर करता इस प्रकार सामाजिक वानिकी देश के आर्थिक विकास के साथ विकास के साथ ही पर्यावरण असंतुलन दूर करने का उत्तम साधन है सामाजिक की वाणी की संकल्पना मुख्यता ग्रामीण समाज की आधारभूत आवश्यकताओं की शीघ्र पूर्ति करना है सामाजिक वानिकी
परियोजना का मुख्य उद्देश्य गाँव के समीप उपलब्ध बंजर भूमि तथा सड़कों, नहरों व रेलमार्गों के सहारे खाली पड़ी बेकार भूमि में उपयोगी वृक्षों को रोपण करना है जिसमें गांव वासियों को ईंधन, चारा, घरों की मरम्मत के लिए लकड़ी, छप्पर, घास आदि कुटीर उद्योगों के लिए कच्चा माल निरन्तर प्राप्त हो सके। कृषि वानिकी (Agro-Forestry) : कृषि तथा वन हमारी कृषि अर्थव्यवस्था के अविच्छिन्न अंग है। वास्तव में वन एक फसल की भांति है तथा संसाधन के रूप में अनेक प्रकार की उपजों का स्रोत है। कृषि वानिकी अन्य फसलों तथा कृषि फसलों का संयोग है। कृषि फसलों का प्रमुख उद्देश्य मनुष्य के लिए खाद्यान्न तथा पशुओं के लिए चारे की व्यवस्था करना है तथा वन्य फसलों का प्राथमिक उद्देश्य लकड़ी, ऊर्जा, घास, चारा, रेशा आदि उपलब्ध कराना है। कृषि वानिकी एक ऐसी प्राविधिकी है जिससे भोजन, ईंधन, चारा आदि दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति के साथ वन संरक्षण तथा पर्यावरण सन्तुलन भी संभव है। इसकी तुलना बहुफसली कृषि पद्धति से भी की जा सकती है। कृषि वानिकी प्राविधिकी की निम्नलिखित पद्धतियाँ हैं :
(1) कृषि युक्त वन पद्धति, (2) वन चारागाह पद्धति, (3) कृषि चारागाह पद्धति, (4) बहुउद्देशीय वृक्ष उत्पादन पद्धति।
वन संसाधन संरक्षण आवश्यक (Necessity of Forest Resources Conservation) पिछली कुछ शताब्दियों से मानव द्वारा वनों की कटाई अधिक मात्रा में होती रही है। जनसंख्या में वृद्धि के साथ-साथ वनों को काटकर कृषि के लिए भूमि साफ की जा रही है। मकान बनाने के लिए, पुलों और नावों के लिए, घरेलू और कारखानों के ईंधन के लिए पशुपालन के लिए तथा औद्योगिक निर्माण के लिए प्रत्येक देश में वन काटे जाते हैं। वनों की अत्यधिक कटाई (Deforestation) की चार मुख्य हानियाँ संसार (भारत) की मानव जाति को कष्ट पहुँचा रही हैं :
(1) वनों के अधिक कटने से भूस्खलन (Land Sliding) और भूमि कटाव तथा मृदा अपरदन (Soil Erosion) हो रहा है। इससे मानव विकास की भूमि कम होती जा रही है, कृषि करने की भूमि कम होती जा रही है। कृषि के उत्पाद के लिए मिट्टियों की उर्वर शक्ति घटती जा रही है। (2) बाढ़ों का प्रकोप बढ़ता जा रहा है। इससे जन-धन का ह्रास बढ़ रहा है। मानवीय बस्तियों के बढ़ने के साथ पशुधन और मनुष्यों की भी क्षति हो रही है। (3) जो लकड़ी निर्माण उद्योगों में कागज की लुग्दी, नकली रेशम, प्लास्टिक आदि के लिए कच्चे मालों (Raw Materials) की तरह प्रयुक्त होती है, वह दिनों दिन कम होती जा रही है। वनों से प्राप्त होने वाले अन्य कच्चे मालों में भी दिनों-दिन कमी होती जा रही है, जबकि कच्चे मालों की आवश्यकता प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। (4) जनों द्वारा पृथ्वी की जलवायु स्वास्थ्यवर्धक रहती है।वनों के अधिककाटने से मानवीय स्वास्थ्य के लिए उपयुक्त जलवायु नहीं मिलेगी। महामारी जैसे रोग बढ़ेंगे और मानवीय स्वास्थ्य खराब होता जाएगा। अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं ने मानवीय जगत, जन्तु जगत और वनस्पति जगत के इस सहजीवी असन्तुलन (Symbiotic Ecologic Imbalance) का नष्ट होता हुआ देखकर अब इन जीवधारी संसाधनों (Living Resources) के समुचित विकास, सन्तुलन और संरक्षण (Conservation) पर बल देना आरंभ कर दिया है। वन
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